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ABOUT SWAMI SWARGANAND

सत्यसाधक संत गुरूदेव स्वामी श्री स्वर्गानन्द जी महाराज का जन्म 31 जनवरी 1975 को बिहार राज्य के सीवान जिले के लेरूऑ नामक ग्राम में कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल में हुआ। इनके पिता का नाम श्री ललनजी उपाध्याय और माता का नाम श्रीमति श्रीपति देवी है। स्वामी जी के बचपन का नाम राजेश था, बाद में माता पिता ने स्कूल में नामांकन के समय इनका नाम विपिन कुमार उपाध्याय रखा। जिले में ही बारहवीं तक की शिक्षा के बाद इग्नू, दिल्ली से स्नातक प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण किए। 
जिज्ञासु प्रवृति वाले स्वर्गानन्द जी के जीवन में नया बदलाव उनकी नानी सफेदा देवी के निधन के बाद बाल्यकाल में ही आ गया जब वे सातवीं कक्षा में थे। जीवन मृत्यु के प्रश्नों ने उन्हें अंदर से झकझोर दिया था। अपने प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए कभी श्मशान में जाकर लेटते तो कभी गाँव के अति बुजुर्ग मरणासन्न लोगों से जाकर मृत्यु संबंधित प्रश्न पूछते। अपनी नानी को फिर से एक बार प्राप्त करने की व्याकुलता ने धर्मग्रंथों की अभिरूचि की ओर उन्मुख किया और इस प्रकार बहुत कम उम्र में ही पुराण- उपनिषद आदि शास्त्र तथा कुरान बाइबिल पढ डाले। सत्य की इस खोज यात्रा में साधु संतों का सान्निध्य भी मिलता रहा। 
विडंबना कहें या भगवान की इच्छा, हमेशा सांसारिक चकाचौंध और ग्लैमर से विरक्त स्वभाव रहने के बावजूद स्वामी जी पन्द्रह वर्षों तक बिपिन बहार के नाम से भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में एक सफलतम गीतकार और अभिनेता के रूप में संलग्न रहे। इनके लिखे गीतों को गाकर कई गायकों ने खूब नाम कमाया।
फिल्मी मायानगरी में सफलता के शीर्ष पर जाने के बाद पुनः वैराग्य बीज ने अंकुरित होकर सदा के लिए नाम शोहरत पैसे की मायावी दुनिया को अलविदा कह दिया और पांच वर्षों तक अज्ञात वास में रहकर गहन साधना और तपस्या किए। विदित हो कि बचपन से भगवान श्रीराम के चरित्र का स्वामी जी पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। विशेषकर भगवान श्रीराम जी का पिता के वचनों के प्रति समर्पण और राजसुख त्याग कर सहर्ष कानन कंटक कष्ट को स्वीकार करना उन्हें खूब प्रभावित करता। कालांतर में गौतम बुद्ध, इस्लाम और जीसस क्राइस्ट से भी खूब प्रभावित हुए। इस्लामिक किताबों को पढने के लिए अरबी लिपि भी सीखने की कोशिश की लेकिन बहुत ज्यादा नहीं सीख पाए। तब इस्लामिक किताबों का हिन्दी अनुवाद यथा कुरान मजीद, मसनून दुआएं, तर्कीबे नमाज, अहले हदीस, कससुल अंबिया और मार्का ए कर्बला आदि लेकर पढने लगे और शौकिया दो तीन जालीदार टोपी भी खरीद ली। इसी तरह जीसस क्राइस्ट की शिक्षाओं और बलिदान ने तो इतना अधिक प्रभावित किया कि कुछ समय तक जीसस का प्रचार प्रसार भी करने लगे। परन्तु कुछ ही समय में चर्चों में व्याप्त खींचातानी, पादरियों की भौतिकवादी प्रवृत्ति व धार्मिक अहंकार, धन पद की लोलुपता, हिन्दु धर्म के विरूद्ध कट्टर शिक्षाएं, उपनिषद वेदांत आदि को जाने बिना संपूर्ण हिन्दु शास्त्रों का अस्वीकार तथा विदेशी धन द्वारा प्रायोजित ईसाईयत की साम्प्रदायिकता को देखकर स्वामी जी का मन पूरी तरह से खिन्न हो गया और उन्होंने हमेशा के लिए अपने आप को चर्च व ईसाईयत से दूर कर लिया। पुनः इक्कीस इक्कीस दिनों का दो वर्ष तक निर्जला उपवास व कठिन साधनाओं के पश्चात ईश्वरीय कृपा से चेतना परम दिव्य ज्योति में स्थापित हो गई। सच्चिदानंद प्रस्फुटित हुए। 
कुंडलिनी ने सहस्रार की यात्रा पार कर स्वयं को धन्य महसूस किया। अष्टावक्र के साक्षीभाव ने धरातल पाया। इस प्रकार भक्ति और हठयोग का पुण्य प्रसाद प्राप्त हुआ और आदिब्रह्म शिव शक्ति ने भगवान श्री सत्यनारायण के रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए तथा ‘स्वर्गानन्द’ नाम व ‘सदमार्गी विज्ञान सत् योग’ का रहस्य बोध आशीर्वाद स्वरूप प्रदान किया। तत्पश्चात पूरे विश्व कल्याणार्थ सेवा हेतु आदेश पाकर सन् 2015 में ‘सत् समाज सदमार्गी अखाड़ा’ की स्थापना हुई। 
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